बच्चा पैदा करने के लिए राजस्थान हाई कोर्ट ने कैदी को पैरोल दी, हिंदू दर्शन का हवाला दिया!

 राजस्थान हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति को बच्चा पैदा करने के लिए 15 दिन की पैरोल दी है. इस कैदी की पत्नी ने अपने ‘संतान के अधिकार’ का जिक्र करते हुए पति की रिहाई की मांग की थी. हाई कोर्ट की जोधपुर बेंच ने कैदी को पैरोल देने और संतान पैदान करने के अधिकारों को लेकर हिंदू, इस्लाम, ईसाई धर्म से जुड़े शास्त्रों की भी चर्चा की. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, हाई कोर्ट के जस्टिस संदीप मेहता और फरजंद अली ने कहा कि जेल में रहने के कारण कैदी की पत्नी की शारीरिक और भावनात्मक जरूरतें प्रभावित हुई हैं. इसी आधार पर कोर्ट ने उम्रकैद की सजा काट रहे 34 साल के नंदलाल के लिए 15 दिनों की पैरोल मंजूर की.





महिला की दलील

दरअसल, कैदी नंदलाल अजमेर सेंट्रल जेल में बंद है. उसकी पत्नी ने जिला कलेक्टर और पैरोल कमिटी के चेयरमैन से अपील की थी. महिला ने पैरोल की मांग करते हुए कहा था कि वो कैदी की वैध पत्नी है और उनकी कोई संतान नहीं है. महिला ने इसके लिए अपने पति के जेल में रहने के दौरान ‘अच्छे व्यवहार’ का भी हवाला दिया था. उसका आवेदन कलेक्टर ऑफिस में पेंडिंग था. मामले की जल्द सुनवाई के लिए वो हाई कोर्ट पहुंच गई.


कैदी नंदलाल को पिछले साल भी 20 दिनों की पैरोल दी गई थी. पत्नी ने हाई कोर्ट से कहा कि अपने पिछले पैरोल के दौरान उसका व्यवहार सही था और यह पैरोल सीमा खत्म होने पर उसने सरेंडर कर दिया था. नंदलाल अब तक 6 साल की सजा काट चुका है.


कोर्ट ने क्या-क्या कहा?

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कैदी की पत्नी बच्चे के अधिकार से वंचित रही है, जबकि ना तो उसने कोई अपराध किया है और ना ही उसे कोई सजा मिली है. कोर्ट ने कहा,


“वंश संरक्षण के उद्देश्य से बच्चा पैदा करने को धार्मिक ग्रंथों, भारतीय संस्कृति और अलग-अलग न्यायिक फैसलों में भी माना गया है. बच्चा होने से कैदी पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. पैरोल देने का मकसद यह भी है कि अपनी रिहाई के बाद कैदी शांतिपूर्ण तरीके से समाज की मुख्यधारा में शामिल हो पाएगा.”


चार पुरुषार्थों का जिक्र

कोर्ट ने हिंदू धर्म के 16 संस्कारों का जिक्र किया, जिसमें पहला संस्कार गर्भधारण को बताया गया है. कोर्ट ने कहा कि यहूदी, ईसाई और दूसरे धर्मों में संतान पैदा करने की चर्चा है. इस्लाम का उदाहरण देते हुए कोर्ट ने कहा कि वंश संरक्षण इसके प्रमुख उद्देश्यों में एक है. कोर्ट ने हिंदू दर्शन में दर्ज चार पुरुषार्थ का भी जिक्र किया. कोर्ट ने कहा,


“हिंदू दर्शन में चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. जब एक कैदी जेल में होता है तो वह इन पुरुषार्थों से वंचित हो जाता है. इनमें से तीन पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ और मोक्ष अकेले हासिल की जा सकती है. लेकिन काम ऐसा हिस्सा है जो शादी होने के बाद किसी के पति/पत्नी पर निर्भर करता है. ऐसी स्थिति में दोषी की निर्दोष पत्नी/पति इससे वंचित हो जाता है.”


कोर्ट ने आगे कहा,


“ऐसे मामले में जब निर्दोष एक महिला है और वह मां बनना चाहती है, तो उस शादीशुदा महिला की इच्छा को पूरा करने के लिए स्टेट की जिम्मेदारी काफी महत्वपूर्ण हो जाती है. मां बनने पर महिला का स्त्रीत्व और निखर जाता है. परिवार और समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. महिला के लिए जीवन में ऐसी स्थिति नहीं होनी चाहिए कि बिना उसकी गलती के वो अपने पति से कोई बच्चा पैदा ना कर पाए.”


हाई कोर्ट ने संतान पैदा करने के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार से भी जोड़ा. उसने कहा कि संविधान गारंटी देता है कि किसी व्यक्ति को उसकी जिंदगी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है. इसलिए दोषी कैदी के पति या पत्नी को संतान की चाहत से नहीं रोका जा सकता है.


कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संतान पैदा करने के लिए कैदी को पैरोल पर रिहा करने का कोई नियम नहीं है, लेकिन धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मानवीय पहलुओं और संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को देखते हुए कैदी को पैरोल देने की अनुमति दी जाती है.

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